• 19वीं शताब्दी के सांस्कृतिक जागरण के अग्रगामी थे। उन्हें आधुनिक भारत के निर्माता के रूप में जाना जाता है।
  • सुभाष चन्द्र बोस ने राजा राममोहन राय को ‘युगदूत’ की उपाधि से सम्मानित किया था।
  • पट्टाभिसीता रमैय्या ने लिखा ‘अद्वितीय व्यक्तित्व के धनी राजाराम मोहन राय को भारतीय राष्ट्रवाद का अग्रदूत और जनक कहा जाता है।’
  • उनकी मान्यता थी कि भारत का जितना जल्दी आधुनिकीकरण होगा भारतीयों के लिए उतना ही हितकर होगा। भारतीय समाज की जड़ों में व्याप्त रूढ़ियों और कुरीतियों का उन्होंने खुला विरोध किया।
  • जन्मः 22 मई, 1772 ई. को, बंगाल के हुगली जिले में स्थित राधानगर में हुआ।
  • राजा राम कई भाषाओं के ज्ञाता थे जिनमें प्रमुख थी- अरबी, फारसी, संस्कृत जैसी प्राच्य भाषायें तथा अंग्रेजी, फ्रांसीसी, लैटिन, यूनानी और हिब्रू जैसी पाश्चात्य भाषायें।
  • पिता – रमाकांत, वे रूढ़िवादी ब्रह्मण थे। ‘राम’ की उपाधि इन्हें पिता से प्राप्त हुई थी।
  • बचपन से ही उनको मूर्तिपूजा में विश्वास नहीं रहा। उन्होंने 1809 ई. में फारसी भाषा में ‘तुहफात-उल-मुवाहिदीन’ नामक पुस्तक की रचना की, जिसमें उन्होंने एकेश्वरवाद पर बल दिया।
  • 1820 में उनकी प्रीसेप्ट्स ऑफ जीसस Precepts of jesus पुस्तक प्रकाशित हुई। इस पुस्तक में उन्होंने न्यू टेस्टामेंट को कहानियों से अलग करने का प्रयास किया।
  • भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के अलावा वे दोहरी लड़ाई लड़ रहे थे। दूसरी लड़ाई उनकी अपने ही देश के नागरिकों से थी। जो अंधविश्वास और कुरीतियों में जकड़े थे। राजा राममोहन राय ने उन्हें झकझोरने का काम किया। बाल-विवाह, सती प्रथा, जातिवाद, कर्मकांड, पर्दा प्रथा आदि का उन्होंने भरपूर विरोध किया।
  • धर्म प्रचार के क्षेत्र में अलेक्जेंडर डफ्फ ने उनकी काफी सहायता की। द्वारका नाथ टैगोर उनके सबसे प्रमुख अनुयायी थे।
  • आधुनिक भारत के निर्माता, सबसे बड़ी सामाजिक – धार्मिक सुधार आंदोलनों के संस्थापक, ब्रह्म समाज, राजा राम मोहन राय सती प्रणाली जैसी सामाजिक बुराइयों के उन्मूलन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
  • राजा राममोहन राय ने 1815 ई. में हिन्दू धर्म के एकेश्वरवादी मत के प्रचार हेतु आत्मीय सभा का गठन किया, जिसमें द्वारकानाथ टैगोर शामिल थे।
  • रवीन्द्रनाथ टैगोर ने राजा राममोहन राय के विषय में कहा कि, ‘राजा राममोहन राय अपने समय में सम्पूर्ण मानव समाज में एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने आधुनिक युग के महत्व को पूरी तरह समझा।’ राजा राममोहन राय ने भारतीय स्वतन्त्रता एवं राष्ट्रीय आंदोलन को समर्थन दिया।
  • 1821 ई. में स्पेनिश अमेरिका में क्रांति के सफल होने पर राजा जी ने एक सार्वजनिक भोज का आयोजन कर अपनी खुशी को व्यक्त किया। इन्हीं सब कारणों से राजा राममोहन राय के व्यक्तित्व को एक ‘अन्तर्राष्ट्रीय व्यक्तित्व‘ माना जाता है।
  • राजा राम मोहन राय के जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि थी – सती प्रथा का निवारण। उनके पूर्ण और निरन्तर समर्थन का ही प्रभाव था, जिसके कारण लॉर्ड विलियम बैंटिक 1829 में सती प्रथा को बन्द कराने में समर्थ हो सके।

ब्रह्म समाज की स्थापना

  • 1815 ई. में राजाराम मोहन राय ने ‘आत्मीय सभा’ की स्थापना की और 1816 में उन्होंने वेदान्त कॉलेज खोला। मुगल सम्राट अकबर द्वितीय ने उनको अपना पक्ष प्रस्तुत करने के लिए इंग्लैण्ड भेजा और ‘राजा’ की उपाधि दी।
  • 20 अगस्त, 1828 को राजा राम मोहन राय ने ‘ब्रह्म समाज’ की स्थापना की जिसके तीन प्रमुख उद्देश्य थे-
    1. हिन्दू समाज की बुराइयों को दूर करना।
    2. ईसाई धर्म के भारत मे बढ़ते प्रभाव को रोकना।
    3. सभी धर्मों में आपसी एकता स्थापित काना।
  • ब्रह्म समाज का स्वरूप पूर्णतया भारतीय था। विद्वानों ने इसे अद्वैतवादी हिन्दू संस्था बताया है।
  • 1833 ई. में राजाराम मोहन राय की मृत्यु के बाद 1842 में देवेन्द्र नाथ टैगोर ब्रह्म समाज में सम्मिलित हुए और आजीवन इस संस्था की सेवा की 1854 में केशवचन्द्र सेन ब्रह्म समाज के सदस्य बने।
  • उन्होंने वाक्चातुर्य और उदारवादी विचारों ने इस आन्दोलन को सामान्य जनता तक पहुंचाया। अनेक स्थानों पर इसकी शाखाएं उत्तर प्रदेश, पंजाब और मद्रास में स्थापित हुई। केशवचन्द सेन पूर्णतया नवीन विचारों के समर्थक थे, अतः देवेन्द्र नाथ टैगोर से कुछ मतभेद हो जाने के कारण उन्होंने नये सामाजिक संगठन ‘आदि ब्रह्म समाज’ की स्थापना की।
  • आगे चलकर इसका भी एक और विभाजन हो गया। केशव चन्द्र सेन के विरोधियों ने ‘साधारण ब्रह्म समाज’ की स्थापना की।
    रवीन्द्रनाथ टैगोर ने राजा राममोहन राय के सम्बन्ध में लिखा है कि ‘उन्होंने भारत में नये युग का सूत्रपात किया। वस्तुतः वे आधुनिक भारत के जनक थे।’
  • एनी बेसेण्ट के शब्दों में, ‘वे एक असाधारण लौहपुरुष तथा अविजित शक्ति के प्रतीक थे। उनकी वीरता ने अकेले ही हिन्दू कट्टरता का मुकाबला किया और उन्होंने स्वतंत्रता का बीजारोपण किया।’

ब्रह्म समाज के सिद्धान्त –

  • ब्रह्मसमाज के प्रमुख सिद्धांत इस प्रकार हैं-
    1.ईश्वर एक है। वह अनादि, अनन्त, निराकार एवं सर्वशक्तिमान है तथा पूजा योग्य है।
    2. ब्रह्म समाज बहुदेववाद तथा मूर्तिपूजा का त्याग करता है।
    3. ब्रह्म समाज वर्ण-व्यवस्था का विरोधी है।
    4. ब्रह्म समाज मे व्यक्ति के नैतिक पक्ष पर विशेष बल दिया गया है।
    5. आत्मा अमर और अजर है।
    6. पाप कर्म का प्रायश्चित एवं दुष्प्रवृत्तियों के त्याग द्वारा ही मुक्ति संभव है।
    7. ईश्वर के लिए सभी समान है। वह सभी की प्रार्थना समान रूप से स्वीकार करता है।
    8. ब्रह्म समाज कर्म फल के सिद्धांत में विश्वास करता है।
    9. धार्मिक स्थलों का प्रयोग मनुष्य में ईश्वर भक्ति, प्राणी मात्र के प्रति प्रेम व दया बढ़ाने के लिए किया जाना चाहिए।
    10. राजा राम मोहन राय ने सत्य के अन्वेषण पर बल दिया और कहा कि यह अन्वेषण आध्यात्मिक अनुभूति से ही संभव है।

पत्रकारिता

  • वर्ष 1821 ई. में ताराचंद्र दंत और भवानी चरण बंधोपाध्याय ने बंगाली भाषा में साप्ताहिक पत्र ‘संवाद कौमुदी’ निकाला, लेकिन दिसंबर 1821 ई. में भवानी चरण ने संपादक पद से त्याग पत्र दे दिया, तो उसका भार राजा राममोहन राय ने संभाला।
  • अप्रैल 1822 ई. में राजा राममोहन राय ने फ़ारसी भाषा में एक साप्ताहिक अख़बार ‘मिरात-उल-अख़बार’ नाम से शुरू किया, जो भारत में पहला फ़ारसी अख़बार था। सरकार ने प्रेस की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाने के लिए अध्यादेश जारी किया, जिसके विरोध में राजा राममोहन राय ने ‘मिरात-उल-अख़बार’ का प्रकाशन बंद कर दिया।
  • उन्होंने ब्रह्ममैनिकल मैग्ज़ीन, बंगदूत जैसे पत्रों का संपादन-प्रकाशन भी किया।
  • उनके जुझारू और सशक्त व्यक्तित्व का इस बात से अंदाज लगाया जा सकता है कि सन् 1821 में अंग्रेज जज द्वारा एक भारतीय प्रतापनारायण दास को कोड़े लगाने की सजा दी गई। फलस्वरूप उसकी मृत्यु हो गई। इस बर्बरता के खिलाफ राय ने एक लेख लिखा।

आदि ब्रह्मसमाज का गठन

  • 1861 ई. में केशवचन्द्र सेन ने ‘इण्डियन मिरर’ नामक पत्र का प्रकाशन प्रारम्भ किया। इस पत्र (मिरर) ने शीघ्र ही अपनी पहचान बना ली और अंग्रेज़ी का पहला दैनिक समाचार होने का गौरव प्राप्त किया। बाद में इण्डियन मिरर ब्रह्मसमाज का मुख पत्र बन गया। आचार्य केशवचन्द्र सेन ने ब्रह्मसमाज को एक अखिल भारतीय रूप देने के उद्देश्य से पूरे भारत का दौरा किया, जिसके परिणामस्वरूप मद्रास में ‘वेद समाज’ तथा महाराष्ट्र में ‘प्रार्थना समाज’ की स्थापना हुई।
  • आचार्य केशवचन्द्र सेन ने महिलाओं के उद्धार, नारी शिक्षा, अन्तर्जातीय विवाह आदि के समर्थन में प्रचार किया तथा बाल विवाह का विरोध किया। इन अमूलकारी परिवर्तनवादी विचारों के कारण ही 1865 ई. में ब्रह्मसमाज में पहली फूट पड़ी। देवेन्द्रनाथ टैगोर के अनुयायियों ने आदि ब्रह्मसमाज का गठन किया।
  • आदि ब्रह्मसमाज का नारा था ‘ब्रह्मवाद ही हिन्दूवाद है।’
  • लन्दन की यात्रा से लौटने के बाद 1872 ई. में केशवचन्द्र सेन ने सरकार को ‘ब्रह्मविवाह अधिनियम’ को क़ानूनी दर्जा देने के लिए तैयार कर लिया। आचार्य केशव चन्द्र सेन ने पश्चिमी शिक्षा के प्रसार, स्त्रियों के उद्धार तथा स्त्री शिक्षा आदि के उद्देश्य से ‘इण्डियन रिफ़ार्म एसोसिएशन’ की स्थापना की। ब्रह्मसमाज में दूसरा विभाजन 1878 ई. में हुआ, जब आचार्य केशवचन्द्र सेन ने ‘ब्रह्मविवाह अधिनियम’ 1872 ई. का उल्लंघन करते हुये अपनी अल्पायु पुत्री का विवाह कूचबिहार के महाराजा से किया।

साधारण ब्रह्मसमाज की स्थापना

  • केशवचन्द्र सेन के अनुयायियों ने उनसे अलग होकर ‘साधारण ब्रह्मसमाज’ की स्थापना की। साधारण ब्रह्मसमाज की स्थापना आनन्द मोहन बोस द्वारा तैयार की गई और इसके प्रथम अध्यक्ष भी थे।
  • साधारण ब्रह्मसमाज के अनुयायी मूर्तिपूजा और जाति प्रथा के विरोधी तथा नारी मुक्ति के समर्थक थे। इस संगठन के सक्रिय कार्यकर्ताओं में शिवनाथ शास्त्री, विपिनचन्द्र पाल, द्वारिकानाथ गांगुली तथा सुरेन्द्रनाथ बनर्जी प्रमुख थे।
  • राजा राममोहन राय ने शिक्षा के क्षेत्र में कार्य किया। उन्होंने वर्ष 1817 में डेविड हेयर के सहयोग से ‘हिन्दू कॉलेज’ की स्थापना की। वहीं वर्ष 1825 में उन्होंने वेदांत कॉलेज की स्थापना की।
निधन
  • वर्ष 1831 में एक विशेष कार्य के सम्बंध में मुग़ल सम्राट के पक्ष का समर्थन करने के लिए इंग्लैंड गये। उन्हें मुग़ल सम्राट अकबर द्वितीय ने ‘राजा’ की उपाधि दी। वे उसी कार्य में व्यस्त थे कि ब्रिस्टल में 27 सितंबर , 1833 को उनका देहान्त हो गया।